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‘री- न्योज़ा- चिलगोज़ा’ – किन्नौर का एक अद्भुत पेड़ व सांस्कृतिक प्रतीक

कहानीकर्ता : प्रमिति नेगी, हिमल प्रकृति फेलो
रिकांग पिओ, जिला किन्नौर, हिमाचल प्रदेश

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किन्नौर की लोक कथाओं में मेरी गहरी दिलचस्पी है और इसकी एक ही वजह है – मेरी ज़ांङ आई (बड़ी नानी) जो एक बहुत अच्छी कहानीकार है। मुझे आज भी याद है जब उन्होंने मुझे पहली बार कहानी सुनाई थी। कहानी एक राक्षस की थी। सितम्बर के महीने का अंत होने को था। मैं और मेरी बहन बहुत छोटे थे। माँ हमें मापो (ननिहाल) छोड़ गयी थी। मापो में उस समय चिलगोज़ा निकालने का काम चल रहा था। 

Photo: मेरी ज़ांङ-आई (बड़ी नानी)

चिलगोज़े के शंकु (कोन) पूरे छत पे बिखरे पड़े थे। ज़ांङ तेते (बड़े नाना) धप्प से अपने बसूला से चिलगोज़े के कोन को तोड़ते और मेरी ज़ांङ आई व घर की अन्य महिलाएं टूटे हुए कोन से एक एक कर चिलगोज़े चुन रहीं थी। खाली हुए शंकुओं का एक बड़ा सा पहाड़ एक तरफ एकत्रित किया जाता और चिलग़ोज़ों का एक छोटा ढेर दूसरी तरफ। एक छोटी सी चिड़िया जिसे हमारी बोली में रितोच (कोल् टिट) बोलते हैं, बार बार आकर उस छोटे ढेर से चिलगोज़ा चुरा कर ले जाती थी। मैं और मेरी बहन उस चिड़िया को देखते और उसे पकड़ने की कोशिश करते हुए इधर उधर भागते। बड़े लोग हमें चेतावनी देते-

अयङ था जेच छिति तुपचो” (यहाँ मत आओ लीसा/गोंद तुम पर लग जाएगी।) 

Photo: रितोच (कोल् टिट), स्रोतः अनस्पलैश, फोटोग्रैफर- सिमरप्रीत चीमा

चिलगोज़े शंकुओं से निकलने वाली लीसा सब जगह फैली थी, पर हम कहाँ सुनाने वाले थे।  कपड़ों की हालत शाम तक बुरी हो गयी थी, या यूँ कहूँ चिपचिपी हो गयी थी।

मेरी छोटी नानी ने हम बच्चों का दिल बहलाने के लिए एक सीधा-सादा फंदा बनाया ।यारा  यानि की चिलगोज़ा छानने की छन्नी को एक लकड़ी के सहारे टिकाया गया। लकड़ी को खींचने के लिए उसके ऊपर रस्सी बांधी गई। और छन्नी के नीचे ज़मीन पर कुछ चिलगोज़े बिखेर दिए। 

हम इंतज़ार करते रहे कब चिड़िया आएगी। चिड़िया आयी और फट से छोटी नानी ने रस्सी खींच ली। लकड़ी हट गयी और छन्नी छटक कर ज़मीन पर गिर पड़ी। हम दोनों बच्चियां खुश होकर ताली बजाने लगी। अब हमारे पास एक पालतू चिड़िया होगी। हमने जैसे ही छन्नी को उठाया चिड़िया फुर्र से उड़ गयी।

Photo: प्या टेमच – चिड़िया को पकड़ने का सीधा साधा फंदा

चिड़िया को दूर जाता देख हम दोनों थोड़ा हताश हो गए। अब छोटे बच्चों को कौन समझाए की पेड़-पौदे, जीव-जंतु सिर्फ इंसानो के स्वार्थ के लिए नहीं बने। छोटी नानी ने हंस कर कहा- 

“चिड़िया की जगह आज़ाद नीले आसमान और दूर जंगलो में है, उसके परिवार वाले भी उसका इंतज़ार करते होंगे।”     

न जाने उस समय दिमाग में क्या आया होगा? पर इतना ज़रूर याद है की जल्द ही चिड़िया को भूल कर दोनों बहने आपस में खेलने लगी। कुछ देर बाद खेलकर जब हम थक गए तो दोनों जाकर ज़ांङ-आई के पास बैठ गयी। ज़ांङ-आई बोली-

कोथा रोंचोच आ?” (कहानी सुनोगी?)

हम दोनों खुश हो गए। बस फिर क्या था बड़े जज़्बातो से वह हमें राक्षसों की एक कहानी सुनाने लगी। मुझे कहानी का संदर्भ ख़ास याद नहीं रहा, पर चिलगोज़े केपेड़ की हल्की सी महक से मिली लीसा की सुगंध और पेड़ का खूबसूरत तना मेरे नज़रों में मंडराने लगता है। और फिर मेरी कल्पना में वो तना एक विशालचमकता हुआ हरा-स्लेटी सांप में परिवर्तित हो जाता है। शायद यह इस लिए होता है क्योंकि हमारी किन्नौरी लोक कथाओं में अनेक जंगली जानवर रहते है। याफिर इस लिए कि चिलगोज़ा मेरी बचपन की यादों में गुथी हुई हैं।

कहानी सुनाते-सुनाते भी उनके हाथ चलते रहते और शंकुओं से चिलगोज़ा निकालते रहते। बीच-बीच में वो सरसों के तेल को अपने हाथों पर मल देती ताकि छिति (लीसा) उनके काम को और मुश्किल न करे। 

अगले दिन जब माँ हमें वापस लेने आयी तो नानी ने चिलग़ोज़ों की एक छोटी पोटली बना कर हम दोनों बहनो को दी और कहा-

किशी ऊ तेनफाच़” (तुम दोनों का तेनफाच़)

तेनफाच़’ एक किन्नौरी शब्द है जिसका अर्थ है- उपहार । उपहार जो केवल खाद्य पदार्थों या जड़ी बूटी के रूप में दिया या लिया जाता है और प्रकृति की देन को प्रेम का प्रतीक बना देते है। 

Photo: पेड़ पर उग रहा चिलगोज़े का शंखु यह कोन                      Photo: बाज़ार में उपलब्ध 135 ग्राम की बोतल

इस बात को तकरीबन पंद्रह वर्ष हो गए होंगे। मेरी ज़ांङ-आई आज भी थोड़ा सा चिलगोज़ा हमें खाने के लिए ज़रूर भेजती हैं, चाहे चिलगोज़े की पैदावार कम हो या ज्यादा, चाहे उसके दाम आसमान क्यों न छू रहे हो। कुछ समय पहले चंगीगढ़ के एक सुपरमार्केट में जाकर मैं चौंक गई। मैंने देखा एक किलो चिलगोज़े की पोटली का दाम था सात हज़ार रुपए । मैंने ऑनलाइन वेबसाइटों पर देखा तो कीमत उस से भी ज्यादा। जबकि खर्च की गई लागत और समय को जोड़कर स्थानीय लोगों के लिए चिलगोज़े से होने वाली आय का औसत है ₹1000 से ₹1500 प्रति किलो।

चिलगोज़े के दुर्लभ पेड़ केवल अफ़ग़ानिस्तान के कुछ हिस्सों में,  पाकिस्तान व कश्मीर के कुछ हिस्सों में और किन्नौर जिले के कुछ इलाकों में ही पाए जाते हैं। चिलगोज़ा के पेड़ समुद्र तल से 1800 मीटर से 2600 मीटर की ऊंचाई पर, खड़ी और चट्टानी पहाड़ी क्षेत्रों में उगते हैं। 

चिलगोज़ा की कटाई और शंकुओं से मेवे निकालना एक अत्यंत कठिन और श्रमसाध्य प्रक्रिया है। चिलगोज़े के दानों को खाने के लिए पहले उन्हें गरम तवे पे सेका जाता है। अच्छे से गरम होते समय एक या दो दाने पॉपकॉर्न के तरह फटना शुरू करते है, बस उसी समय उन्हें तवे से उतार दिया जाता है। फिर उन्हें छीलकर खाया जाता है। सितम्बर के महीने इनकी हार्वेस्ट होती है और सर्दियों में किन्नौर के लोग अपने परिवार के साथ बैठकर चिलगोज़े का आनंद लेते हैं ।  

हम किन्नौर के वासी मुख्य रूप से जंगलों से चिलगोज़ा प्राप्त करते है। इंसानों द्वारा उगाए गए चिलगोज़े के पौधों की जीवित रहने की दर बहुत कम होती है। इसके अलावा इन पेड़ों को बड़ा होने में कई दशक लग जाते है। चिलगोज़े को हमारी भाषा में री बोलते है। इसे न्योज़े के नाम से भी जाना जाता है।   

भोजन और पोषण किसी व्यक्ति के जीवित रहने के लिए बुनियादी आवश्यकताएं हैं। लेकिन भोजन की अपनी एक कहानी है। चिलगोज़े की कहानी किन्नौर की कहानी से बारीकी से जुडी हुई है। किन्नौर के पड़ोस में स्थित है रामपुर बुशहर, जहाँ पर लवी मेले का आयोजन तीन सौ वर्षो से पूर्व से किया जा रहा है। इस लवीमेले में प्राचीन समय से ही चिलगोज़े का व्यापर होता रहा है। 

आर्थिक आय के अलावा चिगोज़े के माध्यम से किन्नौर के सांस्कृतिक और सामुदायिक मूल्य भी झलकते हैं। ख़ुशी के अवसर, जैसे शादी में मेज़बानों को री उयानी चिलगोज़े की बनी माला प्रदान की जाती है। 

Photo: री उ यानी चिलगोज़े की बनी माला

मेरी नानी के ‘जंगराम’ ‘ क्षेत्र, जिसमे 5 गाँव शामिल है, के पूरे गांव के लोग जंगलों से चिलगोजा इकट्ठा करने एक साथ जाते है। प्रत्येक घर से एक व्यक्ति बिना उम्र, लिंग, जात आदि के भेदभाव के, सामूहिक रूप से चिलगोजा एकत्रित करने के लिए जाता है। एकत्रित किए गए चिलगोजे के शंकु सभी के बीच समान रूप से विभाजित किए जाते हैं। इसके अलावा, चिलगोज़े के कुछ शंकु पक्षियों को खाने के लिए पेड़ पर छोड़ दिए जाते हैं। पक्षी चिलगोज़े के पेड़ों के लिए प्राकृतिक रूप से बीज फैलाने का कार्य करते हैं।

परंतु हाल के समय में चिलगोज़े के हार्वेस्टिंग तकनीक में बदलाव आए हैं और कई कारणों से यह दुर्लभ पेड़ विलुप्त होते नज़र आ रहा है। ठेकेदारो द्वारा हार्वेस्ट कराने का प्रचलन किन्नौर में तेजी से बढ़ रहा है। चिलगोज़ा शंकु की अत्यधिक कटाई से चिलगोज़े के नए पेडों की उगने की मात्रा बहुत कम हो गई है। इसके अलावा जलविद्युत परियोजनाओं से संबंधित गतिविधियों के कारण किन्नौर में वनों की भारी कटाई की जा रही है, जिसमें बहुमूल्य चिलगोज़े के जंगलों को भी बेदर्दी से काटा जा रहा है। बर्फ कम पड़ने के कारण भी चिलगोज़े की पैदावार में कमी आयी है। बढ़ती गर्मी और इंसानी लापरवाही के चलते जंगलों में आग लगने की बढ़ती घटनाएं इन जंगलों को प्रभावित कर रही है। 

जब मैंने लोगो से चर्चा की तो चिलगोज़े से संबंधित कुछ पहलु उजागर हुए जिसे मैं एक छोटे सी फ़िल्म के रूप में सामने रख रही हूँ.

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Pramiti Negi
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Pramiti Negi is an avid enthusiast of Ghibli movies and loves collecting different varieties of green tea. A simple way to please her is to make her a personalized music playlist. She strives to incorporate elements of the storytelling traditions which she inherited from her ancestors, into her work. She aspires to finish writing her first novel before she turns 30. Pramiti lives in Rekong Peo, in the border district of Kinnaur in Himachal Pradesh and is currently a Himal Prakriti Fellow.

 

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